धर्म,भगवान और ब्रह्माण्ड का सही ज्ञान
कम्पन, फ्रैक्टल, बुद्ध, ब्रह्माण्ड, भगवान, मन जब कुछ भी नहीं था, यानी की सिर्फ विलक्षणता (Singularity) थी….
क्या ॐ शब्द से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ
कहा जाता हैं तब एक प्रारम्भिक शब्द (ध्वनि) उत्पन्न हुआ. जो एक महाविस्फोट था. बिग बेंग. कहा जाता हैं की हमारा यह भौतिक ब्रह्माण्ड इस प्रारंभिक बिंदु से ही अस्तित्व मैं आया. एक परमाणु से भी अरबो गुना छोटा यह बिंदु क्यों और कैसे अस्तित्व मैं आया यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ हैं. इस बिन्दु से अचानक ब्रह्माण्ड का अनंत रूप से विस्तार होने लगा. लेकिन कोई नहीं जानता कैसे. कोई चीज़ भले ही कितनी भी रहस्यमय और अकल्नीय हो, इंसानों को लगता हैं की वे उसे जान चुके हैं. भौतिकशास्त्रीयों का मानना हैं की ब्रह्माण्ड मैं केवल 4% जितना ही परमाणु पदार्थ हैं, 23% अविज्ञ पदार्थ और 73% निष्क्रिय उर्जा हैं. यह उर्जा जिसे हम खाली जगह या empty space के रूप मैं जानते हैं. यह एक अद्रश्य सिस्टम हैं जो ब्रह्माण्ड मैं सभी चीजों को एकसाथ जोड़कर संचालित होता हैं.
प्राचीन वेदों के अनुसार आवाज (voice) ही सबकुछ हैं. आवाज ब्रह्म हैं. हमारा ब्रह्माण्ड कम्पित हो रहा हैं. और कम्पित हो रहा यह क्षेत्र सारे मूल आध्यात्मिक अनुभवों और वैज्ञानिक अन्वेषणों का आधार है. उर्जा का एक क्षेत्र जिसे बुद्धिमान पुरुषों, योगियों और संतोने अपने भीतर खोजा और इसे महसूस किया हैं. जिसे हमारे समस्त इतिहास मैं ब्रह्मांडीय संगीत, आकाश, ओम और बिग बेंग जैसे नाम दीए गए हैं. सबसे ज्यादा चर्चास्पद नाम रहा हैं : “ भगवान ”. इसका उल्लेख दुनिया के सभी धर्मो मैं हैं और यहीं हमारी अन्दर की और बाहर की दुनिया को जोड़ता हैं.
हमारे ब्रह्माण्ड की आज के समय में जो व्याख्या की जाती हैं वह प्राचीन काल में अलग अलग धर्मो में की गयी व्याख्या से ज्यादा अलग नहीं हैं. अमेरिका के 20वी सदी के महँ वैज्ञानिक निकोला टेस्ला, जिन्होंने प्रत्यावर्ती विद्युत धारा की खोज की थी, उन्हें प्राचीन वैदिक परंपराओं में ज्यादा रूचि थी. निकोला टेस्ला पूर्वी संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति दोनों के माध्यम से विज्ञान को समजना चाहते थे. अन्य वैज्ञानिको की तरह टेस्लाने ब्रह्माण्ड के रहस्यों को गहरे से देखने के साथ साथ अपने भीतर की गहराई में भी झाँका. किसी योगी की तरह स्वर्गिक अनुभव को वर्णित करते हुए आकाश (Aakasha) शब्द का प्रयोग किया. जो सभी चीजों में व्याप्त हैं. इसके लिए निकोला टेस्लाने भारत के स्वामी विवेकानंद के साथ मिलकर इस विषय का अभ्यास किया. स्वामी विवेक नन्द, जिन्होंने भारत की प्राचीन वैदिक शिक्षा और संस्कृति को पश्चिमी देशों तक पहुँचाया था. वैदिक शिक्षा के अनुसार आकाश खुद शून्य हैं, जिसमे अन्य सारे तत्व भरे हुए हैं. यह तत्व इस शून्य में कम्पित होते हुए उपस्थित रहते हैं. यह एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं. आकाश, अन्तरिक्ष या खाली जगह यिन हैं और इसके अंदर का पदार्थ यांग हैं.
फ्रैक्टल (Fractal)
कंप्यूटरों मैं लगातार हो रही प्रगति ने 1980 के दशक के बाद से समग्र ब्रह्माण्ड की प्रकृति के गणितीय ढांचे की गणितीय कल्पना कर उसे वास्तविक रूप में पहचानने का हमें अवसर दिया हैं. “ फ्रैक्टल (Fractal) “ अर्थात अंश (भाग) शब्द का गठन सन 1980 में गणितज्ञ बेनॉयट मेंडेलब्रॉट ने किया था. उन्होंने जब कुछ गणितीय समीकरणों का अध्ययन करने पर पाया कि एक सीमित दायरे में दोहराने पर यह फ्रैक्टल्स अंतहीन गणितीय अथवा ज्योमितीय रूप में बदलती हैं. वे सीमित हैं लेकिन साथ ही अनंत भी. एक अंश एक स्थूल ज्यामितीय आकार होता है, जिसे अनेक हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है, ऐसे विभाजित किए हुए हिस्सों के अनंत हिस्से हो सकते हैं और उनके भी अनत हिस्से. जिनमें से प्रत्येक लगभग संपूर्ण आकार का संक्षिप्त प्रतिरूप है. इस गुण को “ समरूपता “ कहा जाता है. मेंडेलब्राट के इस “ अंश “ की छाप को ईश्वर के अंगूठे की छाप कहा जाता हैं. यदि आप मेंडेलब्राट की इस फ्रैक्टल की आकृति को एक विशिष्ट तरीक़े से घुमाएँ तो यह किसी हिन्दू देवता अथवा भगवान बुद्ध के जैसा दिखाई देता हैं जिसको “ बुद्धब्राट “ आकार` नाम से भी जाना जाता हैं.
अगर आप प्राचीन स्थापत्यकला को ध्यान से देखेगे तो आप पाएंगे कि प्राचीन मनुष्य जातियां काफी लंबे समय से उनकी सौंदर्य और पवित्रता को फ़्रैक्टल पैटर्न के साथ जोड़ते आए हैं. अत्यंत जटिल, लेकिन फिर भी कण-कण में उसकी पूर्णता का बीज होता है. फ्रैक्टल्स ने ब्रह्माण्ड और इसकी संचालन प्रक्रिया पर बहुत सारे गणितज्ञों का दृष्टिकोण बदला है. आवर्धन के हर एक नए स्तर के साथ, मूल से भिन्नता उजागर होती हैं. जब हम फ्रैक्टल के एक स्तर से दूसरे स्तर पर पारगमन करते हैं तो ब्रह्माण्डीय सर्पिल गति में सतत परिवर्धन एवं रूपांतरण घटित होता है. दिक्काल के सांचे में सन्निहित बुद्धिमता. फ्रैक्टल्स यानी सहज रूप से अस्तव्यस्त किन्तु शब्द एवं नियम से भरपूर हैं.
मंगल ग्रह पर पानी
हमारे मस्तिष्क किसी आकार को जब पहचानकर उसको परिभाषित करता हैं, तब हम उस पर इस तरह ध्यान केन्द्रित करते हैं जैसे वह कोई वस्तु हो. हम हमेशां आकारों को हमारे द्वारा देखी गई सुंदरता के अनुरूप ढूंढते हैं, लेकिन अपने मस्तिष्क में इन आकारों को बनाए रखने के क्रम में हमें शेष फ्रैक्टल्स को हटा देने चाहिए. फ्रैक्टल्स को चेतनाओं में समाविष्ट करने का मतलब हैं फ्रैक्टल्स का संचालन सीमित करना है. ब्रह्माण्ड में मौजूद सारी ऊर्जा तटस्थ, शाश्वत और आयामहीन है. हमारी अपनी रचनात्मकता और आकारों को पहचानने की क्षमता सूक्ष्म जगत एवं ब्रह्माण्ड के बीच की कड़ी है. यह लहरों और ठोस वस्तुओं का शाश्वत जगत हैं. चिंतन की स्वभाविक सीमाओं में अवलोकन करना एक सृजनात्मकता है क्योंकि हम वर्गीकरण के द्वारा नाम देकर, किसी भी चीज़ के ठोसपन का भ्रम पैदा करते हैं.
दार्शनिक कीर्केगार्ड ने कहा था की ” यदि आप मेरा नाम रखते हैं तो आप मुझे नकारते हैं. मेरा नाम रखकर, वर्गीकरण कर, आप उन सभी अन्य चीजों को नकार देते हैं जिनकी मुझमें होने की संभावना हो सकती है. आप किसी चीज़ या कण को उसका एक अलग नाम देकर उसको एक वस्तु के रूप में व्याख्यायित कर देते हैं, आप उसके अस्तित्व को परिभाषित कर उसका सर्जन कर देते हैं. ” सर्जनात्मकता हमारी सर्वोच्च प्रकृति है. क्योंकि वस्तुओं के सर्जन से ऐसी स्थिति बनती है जब चीजों में ठोसपन का भ्रम हो.
आल्बर्ट आइन्सटीन ऐसे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह जाना कि जिस अंतरिक्ष को हम शून्य मानते हैं, वास्तव में वह ऐसा है नहीं, बल्कि उसकी कई विशेषताएं हैं. अंतरिक्ष की प्रकृति अनंत आंतरिक ऊर्जा से भरपूर है. भौतिकशास्त्री रिचर्ड फैनमेन के मुताबिक, ” अंतरिक्ष के अकेले क्यूबिक मीटर में इतनी ऊर्जा है कि विश्व के सभी महासागर उबल सकें. ” अधिकतम ऊर्जा स्थिर और शांत हैं. बुद्ध इसे “ कल्प “ कहते थे. कल्प किसी सूक्ष्म कणों अथवा तरंगिकाओं की तरह हैं जो प्रति सेकंड खरबों बार उत्पन्न व लुप्त होती हैं. यह किसी स्वलिखित फ़िल्म कैमरे में तेज गति से चलती गतिशील फ़्रेमों की शृंखला द्वारा सातत्य का भ्रम पैदा करने के समान है. यह भ्रम केवल चेतना के रूरी तरह से स्थिर होने पर समझा जा सकता है. क्योंकि यह चेतना ही है जो भ्रम को संचालित करती है.
दुनिया की ज्यादातर प्राचीन संस्कृतियों में यह समजा गया हैं की ब्रह्माण्ड मैं सबकुछ कंपायमान हैं. नाद ब्रह्म हैं. ब्रह्माण्ड एक ध्वनि है. “ नाद ब्रह्म ” – नाद यानी ध्वनि और ब्रह्म यानी इश्वर. कलाकार और कला अभिन्न हैं. प्राचीन योगियों ने यह माना की चेतना का मूल एक आधार होता है. वर्तमान और भविष्य की सभी जानकारियां तथा अनुभव अभी अस्तित्व में हैं और सदा रहते हैं. यह वही क्षेत्र है जहाँ से सभी चीज़े अस्तित्व में आती हैं. अणुओं और परमाणुओं से लेकर आकाशगंगा और पूरे ब्रह्माण्ड के जीवन चक्र तक. आप इसे समग्रता में कभी नहीं देख पाते, क्योंकि यह कंपन परत-दर-परत पर बना है और निरंतर परिवर्तनशील है.
लेकिन आपका जब विचारशील मस्तिष्क शांत होता हैं, तब आप यथार्थ को वास्तविक रूप में देख सकते हैं. सभी अवस्थाएं एक साथ. वृक्ष, आकाश, पृथ्वी, वर्षा तथा सितारे एकसाथ. जीवन और मृत्यु हमारी अपनी या किसी अन्य की, पृथक नहीं हैं. ठीक वैसे ही जैसे पर्वत और वादियां अभिन्न हैं. अमेरिका की आदिवासी परंपराओं में यह कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु में जीव है जिसे अन्य तरीक़े से कहे तो प्रत्येक वस्तु स्पंदनशील स्रोत से संबद्ध है. सर्वत्र एक चेतना, एक व्यापकता, एक ऊर्जा व्याप्त है. यह व्याप्ति आपके आसपास नहीं, बल्कि यह आपके माध्यम से घटित हो रही है और आपके वास्तविक स्वरूप के अनुसार घटित हो रही है. आप नेत्र हैं जिनके माध्यम से सृजक स्वयं को देखता है. स्वप्न से बाहर आने पर आप महसूस करते हैं कि स्वप्न में सब कुछ आप ही थे. आप इसे सृजित कर रहे थे. प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु आप हैं. प्रत्येक नेत्र की चेतन दृष्टि, प्रत्येक चट्टान के नीचे छिपे प्रत्येक अणु के भीतर तक देखती है. जिस द्रष्टि से हम हम ब्रह्माण्ड या प्रारंभिक सिद्धांत का क्षेत्र देखते हैं और वह दृष्टि जिससे क्षेत्र हमें देखता है, दोनों एक ही है.
समय यात्रा Time Travel
प्रत्येक पदार्थ कंपन से भरपूर है, किन्तु किसी स्थिर चीज़ को देखकर ऐसा बिलकुल नहीं लगता हैं क्योंकि कोई चीज कंपित हो रही हैं. ऐसा लगता लगता है जैसे मानो कोई अदृश्य नर्तक ब्रह्मांड की नृत्य-नाटिका में छिप कर छाया नृत्य कर रहा हैं. अन्य सभी नर्तक हमेशा इस छिपे नर्तक के आसपास नृत्य करते हैं. लेकिन हमने नृत्य की नृत्यकला देखी लेकिन अब तक उस नर्तक को नहीं देख सके.
जर्मन लेखक और विद्वान वुल्फगेंग वॉन गोयथे ने कहा की, ” तरंग आदिकालीन तथ्य है जिससे विश्व उत्पन्न हुआ “. सिमेटिक दृश्य ध्वनि का अध्ययन है. सिमेटिक शब्द ग्रीक के मूल शब्द “ साईमा “ से बना हैं, जिसका अर्थ है – तरंग या कंपन. तरंगीय तथ्य का गंभीरता से अध्ययन करने वालों में प्रथम पश्चिमी वैज्ञानिक अर्नस्ट श्लाड्नी थे. वह अठारहवीं शताब्दी का एक जर्मन संगीतज्ञ एवं भौतिक विज्ञानी था. श्लाड्नी ने खोज की कि धातु की प्लेटों पर रेत फैला कर वायलन गज से जब प्लेटों को डुलाया गया, तो रेत स्वत: प्रतिकृतियों में व्यवस्थित हो गई. उत्पादित कंपन के आधार पर भिन्न–भिन्न ज्यामितिक स्वरूप दृष्टिगोचर हुए. श्लाड्नी ने इन रूपों की समूची तालिका रिकार्ड की, जिन्हें श्लाड्नी आकृतियों के रूप में उल्लिखित किया जाता है. इनमें कई प्रतिकृतियों को समग्र प्राकृतिक विश्व में देखा जा सकता है. जैसे कछुए या तेंदुए की चित्तियों की प्रतिकृतियों के निशान. श्लाड्नी की प्रतिकृतियों या साइमेटिक प्रतिकृतियों का अध्ययन एक गोपनीय विधि है जिसके माध्यम से उन्नत गिटार, वॉयलिन और अन्य वाद्ययंत्रों के निर्माता वाद्ययंत्रों की ध्वनि गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं.
हैंस जेनी ने वर्ष 1960 में श्लाड्नी का कार्य आगे बढ़ाया और ध्वनि नैरंतर्य को विकसित करने के लिए विभिन्न द्रव्य एवं इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धकों का प्रयोग किया एवं `सिमेटिक्स` (तरंग) ध्वनि का सृजन किया. यदि आप जल में सामान्य तरंगों की ओर दौड़ते हैं तो आप जल में प्रतिकृतियां देख सकते हैं. तरंग की आवृत्ति के आधार पर विभिन्न तरंगित प्रतिकृतिया दृष्टिगोचर होंगी. आवृत्ति के बढ़ने पर प्रतिकृति जटिल होती जाएगी. इन स्वरूपों की पुनरावृति होगी, लेकिन ये बेतरतीब नहीं होंगी. जितना अधिक आप इन पर ध्यान केंद्रित करेंगे, उतना ही आपको इस बात का एहसास होगा कि किस प्रकार तरंग पदार्थ को साधारण दुहराव वाले तरंगों से जटिल रूपों में व्यवस्थित करने लगती हैं.
जल एक अत्यंत रहस्यात्मक द्रव्य है. यह अत्यंत संवेदनशील है. अर्थात्, यह कंपन प्राप्त कर सकता है और उसे रोक कर रख सकता है. अपनी अत्याधिक गुंजायमान क्षमता तथा संवेदनशीलता एवं गूंजने के लिए आंतरिक तत्परता के कारण जल सभी प्रकार की ध्वनि तरंगों के प्रति तत्काल प्रतिक्रिया देता है. प्रदोलित जल तथा पृथ्वी से अधिकांश पौधों तथा पशुओं के समूह का निर्माण होता है.
कॉर्न स्टार्च कम्पन के साथ
यह देखना सरल है कि जल में किस प्रकार साधारण प्रदोलन, पहचानने योग्य प्राकृतिक प्रतिकृतियों को सृजित कर सकता है, लेकिन जैसे ही हम उसमें ठोस पदार्थ मिलाते हैं और उसके आयाम को बढ़ा देते हैं तो वस्तुएं और भी दिलचस्प हो जाती हैं. पानी में कार्नस्टार्च (मक्की की मांड) मिलाने से हमें और मिश्रित तत्व हासिल होते हैं. कदाचित जीवन के सिद्धांतों को भी महसूस किया जा सकता है, चूंकि कंपनों से कार्नस्टार्च चलते- फिरते जीव में परिवर्तित हो जाती है.
कबाला या यहूदी रहस्यवाद में ईश्वर के दिव्य नाम का उल्लेख है. वह नाम जिसे उच्चारित नहीं किया जा सकता. इसे इसलिए नहीं बोला जा सकता, क्यूंकि यह ऐसा कंपन है जो सर्वत्र है. यह सभी शब्दों और सभी पदार्थों में हैं. पवित्र शब्द ही सब कुछ है. चतुष्फलक सर्वाधिक सामान्य आकार है, जो तीन आयामों में अस्तित्व में है. कुछ में भौतिक वास्तविकता के लिए कम से कम चार बिंदु होने चाहिए. त्रिकोणीय संरचना प्रकृति की केवल स्वनिर्धारित प्रतिकृति है. पूर्व-विधान में शब्द `चतुर्वर्णी` ईश्वर के कुछेक प्रकटीकरण के लिए प्राय: प्रयुक्त किया जाता है. इसे तब प्रयोग किया गया था, जब ईश्वर के शब्द या ईश्वर, लोगो या प्रारंभिक शब्द के विशेष नाम से बात की गई थी. प्राचीन सभ्यता जानती है कि ब्रह्माण्ड की आधारभूत संरचना चतुष्फलक आकार की थी. इस आकार में प्रकृति साम्य, शिव के लिए आधारभूत प्रमाण प्रदर्शित करती है. हालांकि इसमें परिवर्तन के लिए आधारभूत प्रमाणशक्ति भी है.
क्या हम अपने सपनों को रिकॉर्ड कर सकते हैं? Can We Record Our Dreams?
बाइबल में जॉन सिद्धांत में सामान्यतया`आरंभ पाठ में प्रयुक्त शब्द `लोगो` था. ईसा पूर्व लगभग 500वें वर्ष में विद्यमान ग्रीक दार्शनिक हरक्लीटस ने `लोगो` का उल्लेख कुछ आधारभूत अज्ञात के रूप में किया. सभी पुनरावृति, पद्धति और स्वरूपों का उद्भव. हरक्लीटस के उपदेशों का अनुसरण करने वाले निर्लिप्त दार्शनिकों ने ब्रह्माण्ड में व्याप्त दिव्य जीवंत सिद्धांत के साथ इस शब्द का पता लगाया. सूफीवाद में `लोगो` सर्वत्र है और सभी वस्तुओं में है. यह वह तत्व है जिसमें अव्यक्त, व्यक्त हो जाता है.
हिन्दू परंपरा में शिव नटराज का शाब्दिक अर्थ है `नृत्य सम्राट`. संपूर्ण ब्रह्माण्ड शिव की धुन पर नृत्य करता है. सभी कुछ स्पंदन से ही ओतप्रोत होता है. केवल जब तक शिव नृत्य कर रहे हैं तभी तक संसार विकसित और परिवर्तित हो सकता है, अन्यथा सब कुछ समाप्त होकर शून्य हो जाएगा. यद्यपि शिव हमारी चेतना का साक्ष्य है, शक्ति संसार का सार है. यद्यपि शिव ध्यानमग्न हैं, शक्ति उन्हें संचालित करने का प्रयत्न करती है, जिससे उन्हें नृत्य में उतारा जा सके. यिन एवं यांग की तरह नर्तक तथा नृत्य का अस्तित्व एक है. `लोगो़` का अर्थ है अनावृत सत्य. जो `लोगो़` को जानता है, वही सत्य को जानता है. छिपाव की कई परतें आकाश के रूप में मानवीय संसार में अस्तित्व में हैं, जिससे स्वयं के स्रोत को छिपाते हुए वह जटिल संरचनाओं के भंवर में फंस जाता है. लुकाछिपी के दिव्य खेल की तरह हम हजारों वर्षों से छिपते चले आ रहे हैं और खेल को पूरी तरह से भूल गए हैं. हम भूल गए हैं कि कोई ऐसी चीज है जिसकी खोज की जानी है.
बौद्धधर्म में प्रत्येक को अपने `लोगो़` को सीधे महसूस करना, अर्थात् ध्यान के माध्यम से अपने भीतर परिवर्तन या नश्वरता के क्षेत्र का पता लगाना सिखाया जाता है. जब आप अपना आंतरिक संसार देखते हैं तो आप सूक्ष्म संवेदनाओं और ऊर्जा को देखते हैं और मस्तिष्क अधिकाधिक कुशाग्र व आत्मकेन्द्रित होने लगता है. `अणिका` के प्रत्यक्ष अनुभव या संवेदन के आधारभूत स्तर पर नश्वरता के माध्यम से व्यक्ति मोह से मुक्त हो जाता है. एक बार हम अनुभव कर लेते हैं कि एक ही क्षेत्र है जो सभी धर्मों का सामान्य रास्ता है, तो हम किस प्रकार कह सकते हैं `मेरा धर्म` या `यह मेरा मौलिक ओम् है`, `मेरा क्वाण्टम क्षेत्र है`? हमारे संसार में वास्तविक संकट सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक नहीं हैं. हमारे संकट चेतना के संकट हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभव कर पाने की असमर्थता. प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकृति को पहचानने की असमर्थता. बौद्ध परंपरा में, `बोधिसत्व` जागृत बुद्ध प्रकृति का व्यक्ति है. ब्रह्माण्ड में बोधिसत्व हर प्राणी को जागृत करने में सहायता करता है, यह अनुभव करते हुए कि चेतना केवल एक ही है. किसी के वास्तविक स्वरूप को जागृत करने के लिए व्यक्ति को सभी को जागृत करना चाहिए.
“ विश्व में असंख्य सचेतन प्राणी हैं, मैं उनकी जागृति में सहायता करना चाहता हूं.
मेरी अपूर्णताएं असंख्य हैं, मैं उन पर विजय पाना चाहता हूँ.
धर्म अज्ञात है, मैं इसे जानना चाहता हूं.
जागृति का मार्ग अप्राप्य है, मैं इसे पाना चाहता हूं. “
कम्पन, फ्रैक्टल, बुद्ध, ब्रह्माण्ड, भगवान, मन जब कुछ भी नहीं था, यानी की सिर्फ विलक्षणता (Singularity) थी….
क्या ॐ शब्द से ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ
कहा जाता हैं तब एक प्रारम्भिक शब्द (ध्वनि) उत्पन्न हुआ. जो एक महाविस्फोट था. बिग बेंग. कहा जाता हैं की हमारा यह भौतिक ब्रह्माण्ड इस प्रारंभिक बिंदु से ही अस्तित्व मैं आया. एक परमाणु से भी अरबो गुना छोटा यह बिंदु क्यों और कैसे अस्तित्व मैं आया यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ हैं. इस बिन्दु से अचानक ब्रह्माण्ड का अनंत रूप से विस्तार होने लगा. लेकिन कोई नहीं जानता कैसे. कोई चीज़ भले ही कितनी भी रहस्यमय और अकल्नीय हो, इंसानों को लगता हैं की वे उसे जान चुके हैं. भौतिकशास्त्रीयों का मानना हैं की ब्रह्माण्ड मैं केवल 4% जितना ही परमाणु पदार्थ हैं, 23% अविज्ञ पदार्थ और 73% निष्क्रिय उर्जा हैं. यह उर्जा जिसे हम खाली जगह या empty space के रूप मैं जानते हैं. यह एक अद्रश्य सिस्टम हैं जो ब्रह्माण्ड मैं सभी चीजों को एकसाथ जोड़कर संचालित होता हैं.
प्राचीन वेदों के अनुसार आवाज (voice) ही सबकुछ हैं. आवाज ब्रह्म हैं. हमारा ब्रह्माण्ड कम्पित हो रहा हैं. और कम्पित हो रहा यह क्षेत्र सारे मूल आध्यात्मिक अनुभवों और वैज्ञानिक अन्वेषणों का आधार है. उर्जा का एक क्षेत्र जिसे बुद्धिमान पुरुषों, योगियों और संतोने अपने भीतर खोजा और इसे महसूस किया हैं. जिसे हमारे समस्त इतिहास मैं ब्रह्मांडीय संगीत, आकाश, ओम और बिग बेंग जैसे नाम दीए गए हैं. सबसे ज्यादा चर्चास्पद नाम रहा हैं : “ भगवान ”. इसका उल्लेख दुनिया के सभी धर्मो मैं हैं और यहीं हमारी अन्दर की और बाहर की दुनिया को जोड़ता हैं.
हमारे ब्रह्माण्ड की आज के समय में जो व्याख्या की जाती हैं वह प्राचीन काल में अलग अलग धर्मो में की गयी व्याख्या से ज्यादा अलग नहीं हैं. अमेरिका के 20वी सदी के महँ वैज्ञानिक निकोला टेस्ला, जिन्होंने प्रत्यावर्ती विद्युत धारा की खोज की थी, उन्हें प्राचीन वैदिक परंपराओं में ज्यादा रूचि थी. निकोला टेस्ला पूर्वी संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति दोनों के माध्यम से विज्ञान को समजना चाहते थे. अन्य वैज्ञानिको की तरह टेस्लाने ब्रह्माण्ड के रहस्यों को गहरे से देखने के साथ साथ अपने भीतर की गहराई में भी झाँका. किसी योगी की तरह स्वर्गिक अनुभव को वर्णित करते हुए आकाश (Aakasha) शब्द का प्रयोग किया. जो सभी चीजों में व्याप्त हैं. इसके लिए निकोला टेस्लाने भारत के स्वामी विवेकानंद के साथ मिलकर इस विषय का अभ्यास किया. स्वामी विवेक नन्द, जिन्होंने भारत की प्राचीन वैदिक शिक्षा और संस्कृति को पश्चिमी देशों तक पहुँचाया था. वैदिक शिक्षा के अनुसार आकाश खुद शून्य हैं, जिसमे अन्य सारे तत्व भरे हुए हैं. यह तत्व इस शून्य में कम्पित होते हुए उपस्थित रहते हैं. यह एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं. आकाश, अन्तरिक्ष या खाली जगह यिन हैं और इसके अंदर का पदार्थ यांग हैं.
फ्रैक्टल (Fractal)
कंप्यूटरों मैं लगातार हो रही प्रगति ने 1980 के दशक के बाद से समग्र ब्रह्माण्ड की प्रकृति के गणितीय ढांचे की गणितीय कल्पना कर उसे वास्तविक रूप में पहचानने का हमें अवसर दिया हैं. “ फ्रैक्टल (Fractal) “ अर्थात अंश (भाग) शब्द का गठन सन 1980 में गणितज्ञ बेनॉयट मेंडेलब्रॉट ने किया था. उन्होंने जब कुछ गणितीय समीकरणों का अध्ययन करने पर पाया कि एक सीमित दायरे में दोहराने पर यह फ्रैक्टल्स अंतहीन गणितीय अथवा ज्योमितीय रूप में बदलती हैं. वे सीमित हैं लेकिन साथ ही अनंत भी. एक अंश एक स्थूल ज्यामितीय आकार होता है, जिसे अनेक हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है, ऐसे विभाजित किए हुए हिस्सों के अनंत हिस्से हो सकते हैं और उनके भी अनत हिस्से. जिनमें से प्रत्येक लगभग संपूर्ण आकार का संक्षिप्त प्रतिरूप है. इस गुण को “ समरूपता “ कहा जाता है. मेंडेलब्राट के इस “ अंश “ की छाप को ईश्वर के अंगूठे की छाप कहा जाता हैं. यदि आप मेंडेलब्राट की इस फ्रैक्टल की आकृति को एक विशिष्ट तरीक़े से घुमाएँ तो यह किसी हिन्दू देवता अथवा भगवान बुद्ध के जैसा दिखाई देता हैं जिसको “ बुद्धब्राट “ आकार` नाम से भी जाना जाता हैं.
अगर आप प्राचीन स्थापत्यकला को ध्यान से देखेगे तो आप पाएंगे कि प्राचीन मनुष्य जातियां काफी लंबे समय से उनकी सौंदर्य और पवित्रता को फ़्रैक्टल पैटर्न के साथ जोड़ते आए हैं. अत्यंत जटिल, लेकिन फिर भी कण-कण में उसकी पूर्णता का बीज होता है. फ्रैक्टल्स ने ब्रह्माण्ड और इसकी संचालन प्रक्रिया पर बहुत सारे गणितज्ञों का दृष्टिकोण बदला है. आवर्धन के हर एक नए स्तर के साथ, मूल से भिन्नता उजागर होती हैं. जब हम फ्रैक्टल के एक स्तर से दूसरे स्तर पर पारगमन करते हैं तो ब्रह्माण्डीय सर्पिल गति में सतत परिवर्धन एवं रूपांतरण घटित होता है. दिक्काल के सांचे में सन्निहित बुद्धिमता. फ्रैक्टल्स यानी सहज रूप से अस्तव्यस्त किन्तु शब्द एवं नियम से भरपूर हैं.
मंगल ग्रह पर पानी
हमारे मस्तिष्क किसी आकार को जब पहचानकर उसको परिभाषित करता हैं, तब हम उस पर इस तरह ध्यान केन्द्रित करते हैं जैसे वह कोई वस्तु हो. हम हमेशां आकारों को हमारे द्वारा देखी गई सुंदरता के अनुरूप ढूंढते हैं, लेकिन अपने मस्तिष्क में इन आकारों को बनाए रखने के क्रम में हमें शेष फ्रैक्टल्स को हटा देने चाहिए. फ्रैक्टल्स को चेतनाओं में समाविष्ट करने का मतलब हैं फ्रैक्टल्स का संचालन सीमित करना है. ब्रह्माण्ड में मौजूद सारी ऊर्जा तटस्थ, शाश्वत और आयामहीन है. हमारी अपनी रचनात्मकता और आकारों को पहचानने की क्षमता सूक्ष्म जगत एवं ब्रह्माण्ड के बीच की कड़ी है. यह लहरों और ठोस वस्तुओं का शाश्वत जगत हैं. चिंतन की स्वभाविक सीमाओं में अवलोकन करना एक सृजनात्मकता है क्योंकि हम वर्गीकरण के द्वारा नाम देकर, किसी भी चीज़ के ठोसपन का भ्रम पैदा करते हैं.
दार्शनिक कीर्केगार्ड ने कहा था की ” यदि आप मेरा नाम रखते हैं तो आप मुझे नकारते हैं. मेरा नाम रखकर, वर्गीकरण कर, आप उन सभी अन्य चीजों को नकार देते हैं जिनकी मुझमें होने की संभावना हो सकती है. आप किसी चीज़ या कण को उसका एक अलग नाम देकर उसको एक वस्तु के रूप में व्याख्यायित कर देते हैं, आप उसके अस्तित्व को परिभाषित कर उसका सर्जन कर देते हैं. ” सर्जनात्मकता हमारी सर्वोच्च प्रकृति है. क्योंकि वस्तुओं के सर्जन से ऐसी स्थिति बनती है जब चीजों में ठोसपन का भ्रम हो.
आल्बर्ट आइन्सटीन ऐसे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह जाना कि जिस अंतरिक्ष को हम शून्य मानते हैं, वास्तव में वह ऐसा है नहीं, बल्कि उसकी कई विशेषताएं हैं. अंतरिक्ष की प्रकृति अनंत आंतरिक ऊर्जा से भरपूर है. भौतिकशास्त्री रिचर्ड फैनमेन के मुताबिक, ” अंतरिक्ष के अकेले क्यूबिक मीटर में इतनी ऊर्जा है कि विश्व के सभी महासागर उबल सकें. ” अधिकतम ऊर्जा स्थिर और शांत हैं. बुद्ध इसे “ कल्प “ कहते थे. कल्प किसी सूक्ष्म कणों अथवा तरंगिकाओं की तरह हैं जो प्रति सेकंड खरबों बार उत्पन्न व लुप्त होती हैं. यह किसी स्वलिखित फ़िल्म कैमरे में तेज गति से चलती गतिशील फ़्रेमों की शृंखला द्वारा सातत्य का भ्रम पैदा करने के समान है. यह भ्रम केवल चेतना के रूरी तरह से स्थिर होने पर समझा जा सकता है. क्योंकि यह चेतना ही है जो भ्रम को संचालित करती है.
दुनिया की ज्यादातर प्राचीन संस्कृतियों में यह समजा गया हैं की ब्रह्माण्ड मैं सबकुछ कंपायमान हैं. नाद ब्रह्म हैं. ब्रह्माण्ड एक ध्वनि है. “ नाद ब्रह्म ” – नाद यानी ध्वनि और ब्रह्म यानी इश्वर. कलाकार और कला अभिन्न हैं. प्राचीन योगियों ने यह माना की चेतना का मूल एक आधार होता है. वर्तमान और भविष्य की सभी जानकारियां तथा अनुभव अभी अस्तित्व में हैं और सदा रहते हैं. यह वही क्षेत्र है जहाँ से सभी चीज़े अस्तित्व में आती हैं. अणुओं और परमाणुओं से लेकर आकाशगंगा और पूरे ब्रह्माण्ड के जीवन चक्र तक. आप इसे समग्रता में कभी नहीं देख पाते, क्योंकि यह कंपन परत-दर-परत पर बना है और निरंतर परिवर्तनशील है.
लेकिन आपका जब विचारशील मस्तिष्क शांत होता हैं, तब आप यथार्थ को वास्तविक रूप में देख सकते हैं. सभी अवस्थाएं एक साथ. वृक्ष, आकाश, पृथ्वी, वर्षा तथा सितारे एकसाथ. जीवन और मृत्यु हमारी अपनी या किसी अन्य की, पृथक नहीं हैं. ठीक वैसे ही जैसे पर्वत और वादियां अभिन्न हैं. अमेरिका की आदिवासी परंपराओं में यह कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु में जीव है जिसे अन्य तरीक़े से कहे तो प्रत्येक वस्तु स्पंदनशील स्रोत से संबद्ध है. सर्वत्र एक चेतना, एक व्यापकता, एक ऊर्जा व्याप्त है. यह व्याप्ति आपके आसपास नहीं, बल्कि यह आपके माध्यम से घटित हो रही है और आपके वास्तविक स्वरूप के अनुसार घटित हो रही है. आप नेत्र हैं जिनके माध्यम से सृजक स्वयं को देखता है. स्वप्न से बाहर आने पर आप महसूस करते हैं कि स्वप्न में सब कुछ आप ही थे. आप इसे सृजित कर रहे थे. प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु आप हैं. प्रत्येक नेत्र की चेतन दृष्टि, प्रत्येक चट्टान के नीचे छिपे प्रत्येक अणु के भीतर तक देखती है. जिस द्रष्टि से हम हम ब्रह्माण्ड या प्रारंभिक सिद्धांत का क्षेत्र देखते हैं और वह दृष्टि जिससे क्षेत्र हमें देखता है, दोनों एक ही है.
समय यात्रा Time Travel
प्रत्येक पदार्थ कंपन से भरपूर है, किन्तु किसी स्थिर चीज़ को देखकर ऐसा बिलकुल नहीं लगता हैं क्योंकि कोई चीज कंपित हो रही हैं. ऐसा लगता लगता है जैसे मानो कोई अदृश्य नर्तक ब्रह्मांड की नृत्य-नाटिका में छिप कर छाया नृत्य कर रहा हैं. अन्य सभी नर्तक हमेशा इस छिपे नर्तक के आसपास नृत्य करते हैं. लेकिन हमने नृत्य की नृत्यकला देखी लेकिन अब तक उस नर्तक को नहीं देख सके.
जर्मन लेखक और विद्वान वुल्फगेंग वॉन गोयथे ने कहा की, ” तरंग आदिकालीन तथ्य है जिससे विश्व उत्पन्न हुआ “. सिमेटिक दृश्य ध्वनि का अध्ययन है. सिमेटिक शब्द ग्रीक के मूल शब्द “ साईमा “ से बना हैं, जिसका अर्थ है – तरंग या कंपन. तरंगीय तथ्य का गंभीरता से अध्ययन करने वालों में प्रथम पश्चिमी वैज्ञानिक अर्नस्ट श्लाड्नी थे. वह अठारहवीं शताब्दी का एक जर्मन संगीतज्ञ एवं भौतिक विज्ञानी था. श्लाड्नी ने खोज की कि धातु की प्लेटों पर रेत फैला कर वायलन गज से जब प्लेटों को डुलाया गया, तो रेत स्वत: प्रतिकृतियों में व्यवस्थित हो गई. उत्पादित कंपन के आधार पर भिन्न–भिन्न ज्यामितिक स्वरूप दृष्टिगोचर हुए. श्लाड्नी ने इन रूपों की समूची तालिका रिकार्ड की, जिन्हें श्लाड्नी आकृतियों के रूप में उल्लिखित किया जाता है. इनमें कई प्रतिकृतियों को समग्र प्राकृतिक विश्व में देखा जा सकता है. जैसे कछुए या तेंदुए की चित्तियों की प्रतिकृतियों के निशान. श्लाड्नी की प्रतिकृतियों या साइमेटिक प्रतिकृतियों का अध्ययन एक गोपनीय विधि है जिसके माध्यम से उन्नत गिटार, वॉयलिन और अन्य वाद्ययंत्रों के निर्माता वाद्ययंत्रों की ध्वनि गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं.
हैंस जेनी ने वर्ष 1960 में श्लाड्नी का कार्य आगे बढ़ाया और ध्वनि नैरंतर्य को विकसित करने के लिए विभिन्न द्रव्य एवं इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धकों का प्रयोग किया एवं `सिमेटिक्स` (तरंग) ध्वनि का सृजन किया. यदि आप जल में सामान्य तरंगों की ओर दौड़ते हैं तो आप जल में प्रतिकृतियां देख सकते हैं. तरंग की आवृत्ति के आधार पर विभिन्न तरंगित प्रतिकृतिया दृष्टिगोचर होंगी. आवृत्ति के बढ़ने पर प्रतिकृति जटिल होती जाएगी. इन स्वरूपों की पुनरावृति होगी, लेकिन ये बेतरतीब नहीं होंगी. जितना अधिक आप इन पर ध्यान केंद्रित करेंगे, उतना ही आपको इस बात का एहसास होगा कि किस प्रकार तरंग पदार्थ को साधारण दुहराव वाले तरंगों से जटिल रूपों में व्यवस्थित करने लगती हैं.
जल एक अत्यंत रहस्यात्मक द्रव्य है. यह अत्यंत संवेदनशील है. अर्थात्, यह कंपन प्राप्त कर सकता है और उसे रोक कर रख सकता है. अपनी अत्याधिक गुंजायमान क्षमता तथा संवेदनशीलता एवं गूंजने के लिए आंतरिक तत्परता के कारण जल सभी प्रकार की ध्वनि तरंगों के प्रति तत्काल प्रतिक्रिया देता है. प्रदोलित जल तथा पृथ्वी से अधिकांश पौधों तथा पशुओं के समूह का निर्माण होता है.
कॉर्न स्टार्च कम्पन के साथ
यह देखना सरल है कि जल में किस प्रकार साधारण प्रदोलन, पहचानने योग्य प्राकृतिक प्रतिकृतियों को सृजित कर सकता है, लेकिन जैसे ही हम उसमें ठोस पदार्थ मिलाते हैं और उसके आयाम को बढ़ा देते हैं तो वस्तुएं और भी दिलचस्प हो जाती हैं. पानी में कार्नस्टार्च (मक्की की मांड) मिलाने से हमें और मिश्रित तत्व हासिल होते हैं. कदाचित जीवन के सिद्धांतों को भी महसूस किया जा सकता है, चूंकि कंपनों से कार्नस्टार्च चलते- फिरते जीव में परिवर्तित हो जाती है.
कबाला या यहूदी रहस्यवाद में ईश्वर के दिव्य नाम का उल्लेख है. वह नाम जिसे उच्चारित नहीं किया जा सकता. इसे इसलिए नहीं बोला जा सकता, क्यूंकि यह ऐसा कंपन है जो सर्वत्र है. यह सभी शब्दों और सभी पदार्थों में हैं. पवित्र शब्द ही सब कुछ है. चतुष्फलक सर्वाधिक सामान्य आकार है, जो तीन आयामों में अस्तित्व में है. कुछ में भौतिक वास्तविकता के लिए कम से कम चार बिंदु होने चाहिए. त्रिकोणीय संरचना प्रकृति की केवल स्वनिर्धारित प्रतिकृति है. पूर्व-विधान में शब्द `चतुर्वर्णी` ईश्वर के कुछेक प्रकटीकरण के लिए प्राय: प्रयुक्त किया जाता है. इसे तब प्रयोग किया गया था, जब ईश्वर के शब्द या ईश्वर, लोगो या प्रारंभिक शब्द के विशेष नाम से बात की गई थी. प्राचीन सभ्यता जानती है कि ब्रह्माण्ड की आधारभूत संरचना चतुष्फलक आकार की थी. इस आकार में प्रकृति साम्य, शिव के लिए आधारभूत प्रमाण प्रदर्शित करती है. हालांकि इसमें परिवर्तन के लिए आधारभूत प्रमाणशक्ति भी है.
क्या हम अपने सपनों को रिकॉर्ड कर सकते हैं? Can We Record Our Dreams?
बाइबल में जॉन सिद्धांत में सामान्यतया`आरंभ पाठ में प्रयुक्त शब्द `लोगो` था. ईसा पूर्व लगभग 500वें वर्ष में विद्यमान ग्रीक दार्शनिक हरक्लीटस ने `लोगो` का उल्लेख कुछ आधारभूत अज्ञात के रूप में किया. सभी पुनरावृति, पद्धति और स्वरूपों का उद्भव. हरक्लीटस के उपदेशों का अनुसरण करने वाले निर्लिप्त दार्शनिकों ने ब्रह्माण्ड में व्याप्त दिव्य जीवंत सिद्धांत के साथ इस शब्द का पता लगाया. सूफीवाद में `लोगो` सर्वत्र है और सभी वस्तुओं में है. यह वह तत्व है जिसमें अव्यक्त, व्यक्त हो जाता है.
हिन्दू परंपरा में शिव नटराज का शाब्दिक अर्थ है `नृत्य सम्राट`. संपूर्ण ब्रह्माण्ड शिव की धुन पर नृत्य करता है. सभी कुछ स्पंदन से ही ओतप्रोत होता है. केवल जब तक शिव नृत्य कर रहे हैं तभी तक संसार विकसित और परिवर्तित हो सकता है, अन्यथा सब कुछ समाप्त होकर शून्य हो जाएगा. यद्यपि शिव हमारी चेतना का साक्ष्य है, शक्ति संसार का सार है. यद्यपि शिव ध्यानमग्न हैं, शक्ति उन्हें संचालित करने का प्रयत्न करती है, जिससे उन्हें नृत्य में उतारा जा सके. यिन एवं यांग की तरह नर्तक तथा नृत्य का अस्तित्व एक है. `लोगो़` का अर्थ है अनावृत सत्य. जो `लोगो़` को जानता है, वही सत्य को जानता है. छिपाव की कई परतें आकाश के रूप में मानवीय संसार में अस्तित्व में हैं, जिससे स्वयं के स्रोत को छिपाते हुए वह जटिल संरचनाओं के भंवर में फंस जाता है. लुकाछिपी के दिव्य खेल की तरह हम हजारों वर्षों से छिपते चले आ रहे हैं और खेल को पूरी तरह से भूल गए हैं. हम भूल गए हैं कि कोई ऐसी चीज है जिसकी खोज की जानी है.
बौद्धधर्म में प्रत्येक को अपने `लोगो़` को सीधे महसूस करना, अर्थात् ध्यान के माध्यम से अपने भीतर परिवर्तन या नश्वरता के क्षेत्र का पता लगाना सिखाया जाता है. जब आप अपना आंतरिक संसार देखते हैं तो आप सूक्ष्म संवेदनाओं और ऊर्जा को देखते हैं और मस्तिष्क अधिकाधिक कुशाग्र व आत्मकेन्द्रित होने लगता है. `अणिका` के प्रत्यक्ष अनुभव या संवेदन के आधारभूत स्तर पर नश्वरता के माध्यम से व्यक्ति मोह से मुक्त हो जाता है. एक बार हम अनुभव कर लेते हैं कि एक ही क्षेत्र है जो सभी धर्मों का सामान्य रास्ता है, तो हम किस प्रकार कह सकते हैं `मेरा धर्म` या `यह मेरा मौलिक ओम् है`, `मेरा क्वाण्टम क्षेत्र है`? हमारे संसार में वास्तविक संकट सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक नहीं हैं. हमारे संकट चेतना के संकट हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभव कर पाने की असमर्थता. प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकृति को पहचानने की असमर्थता. बौद्ध परंपरा में, `बोधिसत्व` जागृत बुद्ध प्रकृति का व्यक्ति है. ब्रह्माण्ड में बोधिसत्व हर प्राणी को जागृत करने में सहायता करता है, यह अनुभव करते हुए कि चेतना केवल एक ही है. किसी के वास्तविक स्वरूप को जागृत करने के लिए व्यक्ति को सभी को जागृत करना चाहिए.
“ विश्व में असंख्य सचेतन प्राणी हैं, मैं उनकी जागृति में सहायता करना चाहता हूं.
मेरी अपूर्णताएं असंख्य हैं, मैं उन पर विजय पाना चाहता हूँ.
धर्म अज्ञात है, मैं इसे जानना चाहता हूं.
जागृति का मार्ग अप्राप्य है, मैं इसे पाना चाहता हूं. “