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सनातन धर्म जाति प्रथा के विरोधी

जब सृष्टि आरम्भ हुई थी तो ब्रह्मा ने विधान बनाया था जिसे उनके मानस पुत्र स्वायंभुव मनु ने लिखा था | ये संसार का पहला ग्रन्थ था जिसमे कलियुग ने प्रपंच की तहत धर्म की हानि के लिए छेड़ छेड़ करवाया है|
मूल मनुस्मृति वैदिक संस्कृत में लिखी  १०,००० वर्ष से अधिक पुराना ग्रन्थ है जिसमे  ६३० श्लोक है | विकृत मनुस्मृति २८०० वर्ष पुराना और लगभग २४०० श्लोक है | विकृत मनुस्मृति मनुवाद (ब्राह्मणवाद) का जन्म का कारन बना जिसे भगवन बुध ने २५०० वर्ष पहले अंत किया |

मूल मनुस्मृति वेदों की मान्यताओं पर आधारित है |

मनुस्मृति पर लगाये जाने वाले तीन मुख्य आक्षेप :

१. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया |

२. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे |

३. मनु नारी का विरोधी था और उनका तिरस्कार करता था | उसने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकार का विधान किया |

आइये अब मनुस्मृति के साक्ष्यों पर ही हम इन आक्षेपों की समीक्षा करें | इस लेख में हम पहले आरोप – मनु द्वारा जन्म आधारित जाति प्रथा के निर्माण पर विचार करेंगे |

मनुस्मृति और जाति व्यवस्था :

मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था | अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती | महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है (देखें – ऋग्वेद-१०.१०.११-१२, यजुर्वेद-३१.१०-११, अथर्ववेद-१९.६.५-६) |

यह वर्ण व्यवस्था है | वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है | जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति, जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है |

मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है | यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से |

इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है | ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं | ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे | जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे ? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे ?

मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए | अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए |

मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं | इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है |


वर्णों में परिवर्तन :

मनुस्मृति १०.६५: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं |

मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है |

मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ट कर्म नहीं करता, तो शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है |

उदाहरण-

२.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए |

२.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है |

४.२४५ : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है | इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है | अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है | इसका, किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है |

२.१६८: जो ब्राह्मण,क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है | और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है | अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं |

२ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है |
शूद्र भी पढ़ा सकते हैं :

शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए |

२.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए|

२.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे |
ब्राह्मणत्व का आधार कर्म :

मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती | मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए |

कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है| ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों |

२.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है |

२.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है |
शिक्षा ही वास्तविक जन्म :

मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है | जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है | ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है | शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं |

यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है|

२.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है | यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है |ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है| सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता|

इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा |

२.१४६ : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं | पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है|

२.१४७ : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है| वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है|

अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है | अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा |

१०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं | विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है |

इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता | उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा | और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा | अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं |
‘नीच’ कुल में जन्में व्यक्ति का तिरस्कार नहीं :

किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं |

४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और / या अधिकार से वंचित न करें | क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं|
प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण :

ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं | यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था | जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना आज भी कर रहें हैं|

वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण –

(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |

(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |

(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |

(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

(r) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |

(s) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश |

(t) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर|

(u) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं | इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए |
शूद्रों के प्रति आदर :

मनु परम मानवीय थे| वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते | जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं | उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं |

मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है | अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं |

कुछ और उदात्त उदाहरण देखें –

३.११२: शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए |

३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें |

२.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए |
मनुस्मृति वेदों पर आधारित :

वेदों को छोड़कर अन्य कोई ग्रंथ मिलावटों से बचा नहीं है | वेद प्रक्षेपों से कैसे अछूते रहे, जानने के लिए ‘ वेदों में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता ? ‘ पढ़ें | वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सभी विद्याएँ उसी से निकली हैं | उन्हीं को आधार मानकर ऋषियों ने अन्य ग्रंथ बनाए| वेदों का स्थान और प्रमाणिकता सबसे ऊपर है और उनके रक्षण से ही आगे भी जगत में नए सृजन संभव हैं | अत: अन्य सभी ग्रंथ स्मृति, ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, दर्शन इत्यादि को परखने की कसौटी वेद ही हैं | और जहां तक वे वेदानुकूल हैं वहीं तक मान्य हैं |

मनु भी वेदों को ही धर्म का मूल मानते हैं (२.८-२.११)

२.८: विद्वान मनुष्य को अपने ज्ञान चक्षुओं से सब कुछ वेदों के अनुसार परखते हुए, कर्तव्य का पालन करना चाहिए |

इस से साफ़ है कि मनु के विचार, उनकी मूल रचना वेदानुकूल ही है और मनुस्मृति में वेद विरुद्ध मिलने वाली मान्यताएं प्रक्षिप्त मानी जानी चाहियें |

शूद्रों को भी वेद पढने और वैदिक संस्कार करने का अधिकार :

वेद में ईश्वर कहता है कि मेरा ज्ञान सबके लिए समान है चाहे पुरुष हो या नारी, ब्राह्मण हो या शूद्र सबको वेद पढने और यज्ञ करने का अधिकार है |

और मनुस्मृति भी यही कहती है | मनु ने शूद्रों को उपनयन ( विद्या आरंभ ) से वंचित नहीं रखा है | इसके विपरीत उपनयन से इंकार करने वाला ही शूद्र कहलाता है |

वेदों के ही अनुसार मनु शासकों के लिए विधान करते हैं कि वे शूद्रों का वेतन और भत्ता किसी भी परिस्थिति में न काटें ( ७.१२-१२६, ८.२१६) |
संक्षेप में –

मनु को जन्मना जाति – व्यवस्था का जनक मानना निराधार है | इसके विपरीत मनु मनुष्य की पहचान में जन्म या कुल की सख्त उपेक्षा करते हैं | मनु की वर्ण व्यवस्था पूरी तरह गुणवत्ता पर टिकी हुई है |

प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | मनु ने ऐसा प्रयत्न किया है कि प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान जो सबसे सशक्त वर्ण है – जैसे किसी में ब्राह्मणत्व ज्यादा है, किसी में क्षत्रियत्व, इत्यादि का विकास हो और यह विकास पूरे समाज के विकास में सहायक हो |

अगले लेखों में हम मनु पर थोपे गए अन्य आरोप जैसे शूद्रों के लिए कठोर दंड विधान तथा स्त्री विरोधी होने की सच्चाई को जानेंगे |

लेकिन मनु पाखंडी और आचरणहीनों के लिए क्या कहते हैं, यह भी देख लेते हैं –

४.३०: पाखंडी, गलत आचरण वाले, छली – कपटी, धूर्त, दुराग्रही, झूठ बोलने वाले लोगों का सत्कार वाणी मात्र से भी न करना चाहिए |

जन्मना जाति व्यवस्था को मान्य करने की प्रथा एक सभ्य समाज के लिए कलंक है और अत्यंत छल-कपट वाली, विकृत और झूठी व्यवस्था है | वेद और मनु को मानने वालों को इस घिनौनी प्रथा का सशक्त प्रतिकार करना चाहिए | शब्दों में भी उसके प्रति अच्छा भाव रखना मनु के अनुसार घृणित कृत्य है |

प्रश्न : मनुस्मृति से ऐसे सैंकड़ों श्लोक दिए जा सकते हैं, जिन्हें जन्मना जातिवाद और लिंग-भेद के समर्थन में पेश किया जाता है | क्या आप बतायेंगे कि इन सब को कैसे प्रक्षिप्त माना जाए ?

यही तो सोचने वाली बात है कि मनुस्मृति में जन्मना जातिवाद के विरोधी और समर्थक दोनों तरह के श्लोक कैसे हैं ? इस का मतलब मनुस्मृति का गहरे से अध्ययन और परीक्षण किए जाने की आवश्यता है | जो हम अगले लेख में करेंगे, अभी संक्षेप में देखते हैं –

आज मिलने वाली मनुस्मृति में बड़ी मात्रा में मनमाने प्रक्षेप पाए जाते हैं, जो बहुत बाद के काल में मिलाए गए | वर्तमान मनुस्मृति लगभग आधी नकली है| सिर्फ़ मनुस्मृति ही प्रक्षिप्त नहीं है | वेदों को छोड़ कर जो अपनी अद्भुत स्वर और पाठ रक्षण पद्धतियों के कारण आज भी अपने मूल स्वरुप में है, लगभग अन्य सभी सम्प्रदायों के ग्रंथों में स्वाभाविकता से परिवर्तन, मिलावट या हटावट की जा सकती है | जिनमें रामायण, महाभारत, बाइबल, कुरान इत्यादि भी शामिल हैं | भविष्य पुराण में तो मिलावट का सिलसिला छपाई के आने तक चलता रहा |

आज रामायण के तीन संस्करण मिलते हैं – १. दाक्षिणात्य २. पश्चिमोत्तरीय ३. गौडीय और यह तीनों ही भिन्न हैं | गीता प्रेस, गोरखपुर ने भी रामायण के कई सर्ग प्रक्षिप्त नाम से चिन्हित किए हैं | कई विद्वान बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के अधिकांश भाग को प्रक्षिप्त मानते हैं |

महाभारत भी अत्यधिक प्रक्षिप्त हो चुका ग्रंथ है | गरुड़ पुराण ( ब्रह्मकांड १.५४ ) में कहा गया है कि कलियुग के इस समय में धूर्त स्वयं को ब्राह्मण बताकर महाभारत में से कुछ श्लोकों को निकाल रहे हैं और नए श्लोक बना कर डाल रहे हैं |

महाभारत का शांतिपर्व (२६५.९,४) स्वयं कह रहा है कि वैदिक ग्रंथ स्पष्ट रूप से शराब, मछली, मांस का निषेध करते हैं | इन सब को धूर्तों ने प्रचलित कर दिया है, जिन्होंने कपट से ऐसे श्लोक बनाकर शास्त्रों में मिला दिए हैं |

मूल बाइबल जिसे कभी किसी ने देखा हो वह आज अस्तित्व में ही नहीं है | हमने उसके अनुवाद के अनुवाद के अनुवाद ही देखे हैं |

इसलिए इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मनुस्मृति जो सामाजिक व्यवस्थाओं पर सबसे प्राचीन ग्रंथ है उसमें भी अनेक परिवर्तन किए गए हों | यह सम्भावना अधिक इसलिए है कि मनुस्मृति सर्व साधारण के दैनिक जीवन को, पूरे समाज को और राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाला ग्रंथ रहा है | यदि देखा जाए तो सदियों तक वह एक प्रकार से मनुष्य जाति का संविधान ही रहा है | इसलिए धूर्तों और मक्कारों के लिए मनु स्मृति में प्रक्षेप करने के बहुत सारे प्रलोभन थे |

मनुस्मृति का पुनरावलोकन करने पर चार प्रकार के प्रक्षेप दिखायी देते हैं – विस्तार करने के लिए, स्वप्रयोजन की सिद्धी के लिए, अतिश्योक्ति या बढ़ा- चढ़ा कर बताने के लिए, दूषित करने के लिए| अधिकतर प्रक्षेप सीधे- सीधे दिख ही रहें हैं |

डा. सुरेन्द्र कुमार ने मनु स्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन किया है | जिसमें प्रत्येक श्लोक का भिन्न- भिन्न रीतियों से परीक्षण और पृथक्करण किया है ताकि प्रक्षिप्त श्लोकों को अलग से जांचा जा सके | उन्होंने मनुस्मृति के २६८५ में से १४७१ श्लोक प्रक्षिप्त पाए हैं |

प्रक्षेपों का वर्गीकरण वे इस प्रकार करते हैं –

– विषय से बाहर की कोई बात हो |

– संदर्भ से विपरीत हो या विभिन्न हो |

– पहले जो कहा गया, उसके विरुद्ध हो या पूर्वापार सम्बन्ध न हो |

– पुनरावर्तन हो |

– भाषा की विभिन्न शैली और प्रयोग हो |

– वेद विरुद्ध हो


मनस्मृति पुस्तक महाभारत और रामायण से भी प्राचीन है। गीता प्रेस गोरखपुर या फिर गायत्री परिवार से प्रकाशित मनुस्मृति को ही पढ़ना चाहिए, क्योंकि अन्य प्रकशनों की मनुस्मृति पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह सही है या नहीं। ऐसे भी मनुस्मृति है जिसमें कुछ सूत्रों श्लोकों के साथ छेड़कानी करके उसे खूब प्रचारित और प्रसारित किया गया है।

कितनी पुरानी है मनुस्मृति?
सन् 1932 में जापान के एक बम विस्फोट द्वारा चीन की ऐतिहासिक दीवार का एक हिस्सा टूट गया था। टूटे हुए इस हिस्से से लोहे का एक ट्रंक मिला जिसमें चीनी भाषा में एक प्राचीन पांडुलिपियां भरी हुई थीं।
चीन से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण-
विदेशी प्रमाणों में मनुस्मृति के काल तथा श्लोकों की संख्या की जानकारी कराने वाला एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक प्रमाण चीन में मिला है। सन् 1932 में जापान ने बम विस्फोट द्वारा चीन की ऐतिहासिक दीवार को तोड़ा तो उसमें से एक लोहे का ट्रंक मिला जिसमें चीनी भाषा की प्राचीन पांडुलिपियां भरी थीं। ये पांडुलिपियां सर आगस्टस रिट्ज जॉर्ज (Sir Augustus Fritz) के हाथ लग गईं और उन्होंने इसे ब्रिटिश म्यूजियम में रखवा दिया था। उन पांडुलिपियों को प्रोफेसर एंथोनी ग्रेम (Prof. Anthony Graeme) ने चीनी विद्वानों से पढ़वाया तो यह जानकारी मिली...

चीन के राजा ‍शी लेज वांग (Chin-Ize-Wang) ने अपने शासनकाल में यह आज्ञा दी कि सभी प्राचीन पुस्तकों को नष्ट कर दिया जाए। इस आज्ञा का मतलब था कि कि चीनी सभ्यता के सभी प्राचीन प्रमाण नष्ट हो जाएं। तब किसी विद्याप्रेमी ने पुस्तकों को ट्रंक में छिपाया और दीवार बनते समय चुनवा दिया। संयोग से ट्रंक विस्फोट से निकल आया।

चीनी भाषा के उन हस्तलेखों में से एक में लिखा है ‍कि मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है, जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और 10,000 वर्ष से अधिक पुराना है तथा इसमें मनु के श्लोकों की संख्या 630 भी बताई गई है। ...किंतु वर्तमान में मनु स्मृति में 2400 के आसपास श्लोक हैं।

इस दीवार के बनने का समय लगभग 220 से 206 ईसा पूर्व का है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220 ईसा पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा। 220+10,000= 10,220 ईसा पूर्व मनुस्मृति लिखी गई होगी अर्थात आज से 12,234 वर्ष पूर्व मनुस्मृति उपलब्ध थी।

हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार राजा वैवस्वत मनु का जन्म 6382 विक्रम संवत पूर्व वैशाख कृष्ण पक्ष 1 को हुआ था अर्थात ईसा पूर्व 6324 को हुआ था। इसका मतलब कि आज से 8,328 वर्ष पूर्व राजा मनु का जन्म हुआ था।

वैवस्वत मनु को श्राद्धदेव भी कहते हैं। इन्हीं के काल में विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था। इनके पूर्व 6 और मनु हो गए हैं। स्वायंभुव मनु प्रथम मनु हैं, तो क्या प्रथम मनु के काल में मनुस्मृति लिखी गई? स्वायंभुव मनु 9057 ईसा हुए थे। ये भगवान ब्रह्मा की दो पीढ़ी बाद हुए थे।


कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उनका काल 9000 से 8762 विक्रम संवत पूर्व के बीच का था अर्थात 8942 ईसा पूर्व उनका जन्म हुआ था। इसका मतलब आज से 10,956 वर्ष पूर्व प्रथम राजा स्वायंभुव मनु थे। तो कम से कम आज से 10,000 वर्ष पुरानी है 'मनुस्मृति'।
निष्कर्ष :मनुस्मृति में बहुत अधिक मात्रा में मिलावट हुई है | परंतु इस मिलावट को आसानी से पहचानकर अलग किया जा सकता है | प्रक्षेपण रहित मूल मनुस्मृति अत्युत्तम कृति है, जिसकी गुण -कर्म- स्वभाव आधारित व्यवस्था मनुष्य और समाज को बहुत ऊँचा उठाने वाली है |
मूल मनुस्मृति वेदों की मान्यताओं पर आधारित है |

मनुस्मृति के कुछ चुने हुए श्लोक

धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
अर्थ - धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अक्रोध)।
नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥
अर्थ - न किसी को अपना जूंठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये।
तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत ॥
अर्थ - तेल-मालिश के उपरांत, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुंडन के पश्चात - व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता - मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥
अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।




SANT RAVIDAS : Hari in everything, everything in Hari

For him who knows Hari and the sense of self, no other testimony is needed: the knower is absorbed. हरि सब में व्याप्त है, सब हरि में...

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चेतावनी : मै किसी धर्म, पार्टी, सम्प्रदाय का विरोध या सहयोग करने नही आया हूँ | मै सिर्फ १५,००० बर्ष की सच्ची इतिहास अध्ययन के बाद रखता हूँ | हिन्दू एक ही पूर्वज के संतान है | भविस्य पुराण के अनुसार राजा भोज ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए कार्य का बंटवारा किया था | जिसके अनुसार कोई भी अपने योगयता के अनुसार कार्य कर सकता था | कोई भी कोई कार्य चुन सकता था | पूजा करना , सैनिक बनना,खाना बनाना,व्यापार करना ,पशु पालना, खेती करना इत्यादि | ये कालांतर में जाति का रूप लेता गया | हिन्दू के बहुजन समाज (पिछड़ा, अति पिछड़ा, अन्य पिछड़ा, दलित और महादलित ) को सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कर रहा हूँ | योगयता और मेहनत ही उन्नति का साधन है | एक कटु सत्य : यह हैं की मध्य काल में जब वेद विद्या का लोप होने लगा था, उस काल में ब्राह्मण व्यक्ति अपने गुणों से नहीं अपितु अपने जन्म से समझा जाने लगा था, उस काल में जब शुद्र को नीचा समझा जाने लगा था, उस काल में जब नारी को नरक का द्वार समझा जाने लगा था, उस काल में मनु स्मृति में भी वेद विरोधी और जातिवाद का पोषण करने वाले श्लोकों को मिला दिया गया था,उस काल में वाल्मीकि रामायण में भी अशुद्ध पाठ को मिला दिया गया था जिसका नाम उत्तर कांड हैं। जो धर्म सृष्टि के आरम्भ के पहले और प्रलय के बाद भी रहे उसे सनातन धर्म कहते है | सनातन धर्म का आदि और अंत नही है | नया सवेरा