सम्पूर्ण वेदों में ‘शूद्र’ शब्द कहीं भी दास के संदर्भ में नहीं है | वेदों में शूद्र आर्य ही है |
ऋग्वेद के ३६ मंत्र ‘आर्य’ के विभिन्न रूपों को समाहित करते हुए श्रेष्ट और सदाचारी मनुष्यों का ही अर्थ रखते हैं |
आर्यों में जो परोपकारी लोग, सेवा कार्य से अपनी आजीविका चलाते हैं – वे शूद्र हैं |वेदों में शूद्र का स्थान अत्यंत सम्मानजनक है ,जैसा हमने ‘वेद और शूद्र ‘ में देखा |
आम बोल- चाल में दास और शूद्र शब्द इस तरह घुल-मिल गए हैं कि दास का अर्थ शूद्र ही समझ लिया गया है | और जो निर्देश वेद में दास के लिए है, उसे शूद्र के लिए भी समझ लिया गया है |
आइए, देखते हैं कि वेद में ‘दास’ का क्या अर्थ है –
‘दास’ शब्द क्रियापद के रूप में –
ऋग्वेद ७.१.२१
हमारे वीर योद्धा, न दास बनें और न नष्ट हों |
ऋग्वेद ६.५.४
जो छिप कर हमको (अभि + दासत्) नष्ट करना चाहता है |
हे देव! उसे आप नष्ट करें |
यहां ( अभि + दासत्) = हिंसा करता है, दुःख देता है |
ऋग्वेद ७.१०४.७
जो द्वेष से हमको (अभिदासति) नष्ट करना चाहता है, उसका कभी कल्याण न हो |
ऋग्वेद १०.९७.२३
हमारा वह शत्रु नष्ट हो, जो हमको ( अभिदासति) नष्ट करना चाहता है |
इन सभी मंत्रो में ‘दास’ विनाश का प्रतीक है |
‘ दस ‘ धातु –
दास के मूल शब्द ‘दस’ का अर्थ –
ऋग्वेद १०.११७.२
दानशील मनुष्य का धन ( उप+ दस्यति ) नष्ट नहीं होता है |
ऋग्वेद ५.५४.७
परमेश्वर जिसे प्रेरणा करते हैं, ऐसे मनुष्य का धन और समृद्धि कभी (
उपदस्यन्ति ) क्षीण नहीं होते |
‘दस’ ( धातु ) = नाश \ नष्ट होना |
‘दास’ शब्द के प्रयोग –
ऋग्वेद २.१२.४
दास वा विनाशकारी मनुष्य का दमन करो |
ऋग्वेद ५.३४.६
आर्य लोग दास वा विनाशकारी जनों को अपने वश में रखें |
ऋग्वेद ६.२२६.५
शांति को नष्ट करनेवाले जो दास हैं, उनका नाश हो |
इस मंत्र में ‘ शम्बर’ दास के विशेषण के रूप में आया है, जो ‘ शम्
‘ (शांति) का विरोधी है |
ऋग्वेद ७.१९.२
दास, शुष्णम् ( धन लूटने वाले ) और कुयवम् ( आतंककारी ) को पूर्णतया वश में करो |
ऋग्वेद १०.४९.६
पापस्वरुप दास सदा नष्ट हों |
ऋग्वेद १०.१९.७
जो मारने योग्य दास है, उस का नाश करो |
ऋग्वेद के मंत्र ४.३०.१५, ४.३०.२१ और ३.१२.६ भी दास के संहार के लिए कहते हैं |
इन सभी उदाहरणों से समझा जा सकता है कि वेद में हिंसक, दुष्ट, हानि पहुँचाने वाला और विध्वंस करने वाला मनुष्य ही दास है, चाहे किसी समुदाय का हो |
अतः सिद्ध है कि वेद में दास शब्द किसी भिन्न नस्ल या वंश का अर्थ नहीं रखता |
पहले लेख में हमने देखा कि ऐसे ही विध्वंसकारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को दस्यु कहते हैं |
इस तरह दास, दस्यु का ही पर्यायवाची है |
आजकल के अतिघातक विध्वंसकारी आतंकी इसी श्रेणी में आते हैं |
आर्य ( अच्छे कार्य करने वाले ) और दास \ दस्यु ( बुरे कार्य करने वाले ) के स्वभाव में अंतर है |
दास \ दस्यु लोग समाज और राष्ट्र के नाशक होते हैं | अतः वेद दास या दस्यु के वध का स्पष्ट निर्देश करते हैं |
इसमें किसी जातिविशेष के नाश का नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की रक्षा के लिए सब दुष्टों के ही नाश का भाव है |
सम्पूर्ण वेदों में ‘शूद्र’ शब्द कहीं भी दास के संदर्भ में नहीं है | वेदों में शूद्र आर्य ही है |
ऋग्वेद के ३६ मंत्र ‘आर्य’ के विभिन्न रूपों को समाहित करते हुए श्रेष्ट और सदाचारी मनुष्यों का ही अर्थ रखते हैं |
आर्यों में जो परोपकारी लोग, सेवा कार्य से अपनी आजीविका चलाते हैं – वे शूद्र हैं |
और वेदों में शूद्र का स्थान अत्यंत सम्मानजनक है ,जैसा हमने ‘वेद और शूद्र ‘ में देखा |
जब दासों या अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को पकड़ा जाता था, तब सुधार योग्य दासों को कई काम सिखाए जाते थे, जैसे कि आज भी जेल में कैदियों को काम सिखाए जाते हैं और श्रम कराया जाता है | इसी तरह, इन दासों को भी सेवा कार्यों की जिम्मेदारी दी जाती थी | समय के चलते, वेदों के मूल सन्देश को हम भुला बैठे और इन दासों की अगली पीढ़ियों को भी ‘दास’
ही कहा जाने लगा और दास माने ‘सेवक’ आरूढ़ हो गया | इस तरह, वेदों की धारणाओं से पूर्णतः भिन्न शूद्र और दास आपस में पर्यायवाची बन गए |
विश्व के समस्त श्रेष्ट जन, शूद्रों सहित आर्य हैं |